मनीष कुंजाम ने नियमगिरि और बैलाडीला में लोह अयस्क की खदान के विरोध में आदिवासियों के प्रदर्शन का हवाला भी दिया.
लेकिन बैठक में मौजूद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का मानना है कि चर्चा विकास और पुलिस के आधुनिकीकरण पर की गई.
साथ ही माओवाद प्रभावित ज़िलों के विकास के लिए अतिरिक्त धनराशि मुहैया कराने पर भी चर्चा की गई. इस पर भी चर्चा हुई कि किस तरह माओवाद प्रभावित राज्यों की पुलिस के बीच आपस का समन्वय बेहतर किया जा सके.
उन्होंने कहा कि कई राज्यों ने केंद्र से अतिरिक्त सुरक्षा बलों की मांग की है.
जहाँ तक छापामार युद्ध का सवाल है तो बघेल
कहते हैं कि केंद्रीय सुरक्षा बलों को इसके प्रशिक्षण का अभाव है.
पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट में वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने एक याचिका दायर की. याचिका में मांग की गयी कि लड़की और लड़कों के लिए शादी की उम्र का क़ानूनी अंतर खत्म किया जाए.
याचिका कहती है कि उम्र के इस अंतर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. यह पितृसत्तात्मक विचारों की देन है. इस याचिका ने एक बार फिर भारतीय समाज के सामाने शादी की उम्र का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया है. जी, यह कोई पहला मौका नहीं है.
भारत में शादी की उम्र काफ़ी अरसे से चर्चा में रही है. इसके पीछे सदियों से चली आ रही बाल विवाह की प्रथा को रोकने का ख्याल रहा है. ध्यान देने वाली बात है, इसके केन्द्र में हमेशा लड़की की ज़िंदगी ही रही है. उसी की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिहाज़ से ही उम्र का मसला सवा सौ साल से बार-बार उठता रहा है.
साल 1884 में औपनिवेशिक भारत में डॉक्टर रुख्माबाई के केस और 1889 में फुलमोनी दासी की मौत के बाद यह मामला पहली बार ज़ोरदार तरीके से बहस के केन्द्र में आया. रुख्माबाई ने बचपन की शादी को मानने से इनकार कर दिया था जबकि 11 साल की फुलमोनी की मौत 35 साल के पति के जबरिया यौन सम्बंध बनाने यानी बलात्कार की वजह से हो गयी थी.
फुलमोनी के पति को हत्या की सजा तो मिली लेकिन वह बलात्कार के आरोप से मुक्त हो गया. तब बाल विवाह की समस्या से निपटने के लिए ब्रितानी सरकार ने 1891 में सहमति की उम्र का क़ानून बनाया. इसके मुताबिक यौन सम्बंध के लिए सहमति की उम्र 12 साल तय की गयी. इसके लिए बेहरामजी मालाबारी जैसे कई समाज सुधारकों ने अभियान चलाया.
द नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) की रिपोर्ट चाइल्ड मैरेज इन इंडिया के मुताबिक, इसी तरह मैसूर राज्य ने 1894 में एक कानून बनाया. इसके बाद आठ साल से कम उम्र की लड़की की शादी पर रोक लगी.
इंदौर रियासत ने 1918 में लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 14 और लड़कियों के लिए 12 साल तय की. मगर एक पुख्ता क़ानून की मुहिम चलती रही. 1927 में राय साहेब हरबिलास सारदा ने बाल विवाह रोकने का विधेयक पेश किया और इसमें लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था. 1929 में यह क़ानून बना. इसे ही सारदा एक्ट के नाम से भी जाना जाता है.
इस कानून में 1978 में संशोधन हुआ. इसके बाद लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम क़ानूनी उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल हो गयी. मगर कम उम्र की शादियां रुकी नहीं. तब साल 2006 में इसकी जगह बाल विवाह रोकने का नया क़ानून आया. इस कानून ने बाल विवाह को संज्ञेय जुर्म बनाया.
लेकिन बैठक में मौजूद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का मानना है कि चर्चा विकास और पुलिस के आधुनिकीकरण पर की गई.
साथ ही माओवाद प्रभावित ज़िलों के विकास के लिए अतिरिक्त धनराशि मुहैया कराने पर भी चर्चा की गई. इस पर भी चर्चा हुई कि किस तरह माओवाद प्रभावित राज्यों की पुलिस के बीच आपस का समन्वय बेहतर किया जा सके.
उन्होंने कहा कि कई राज्यों ने केंद्र से अतिरिक्त सुरक्षा बलों की मांग की है.
जहाँ तक छापामार युद्ध का सवाल है तो बघेल
लड़का और लड़की के लिए शादी की उम्र अलग-अलग क्यों है? लड़की की कम और लड़के की ज़्यादा... भारत ही नहीं
दुनिया के कई देशों में लड़के और लड़की की शादी की क़ानूनी उम्र में फ़र्क
है.
लड़की की उम्र कहीं भी लड़के से ज़्यादा नहीं रखी गयी है.
दिलचस्प है कि हमारे देश में तो बालिग होने की कानूनी उम्र दोनों के लिए
एक है मगर शादी के लिए न्यूनतम क़ानूनी उम्र अलग-अलग. कहते हैं कि केंद्रीय सुरक्षा बलों को इसके प्रशिक्षण का अभाव है.
पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट में वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने एक याचिका दायर की. याचिका में मांग की गयी कि लड़की और लड़कों के लिए शादी की उम्र का क़ानूनी अंतर खत्म किया जाए.
याचिका कहती है कि उम्र के इस अंतर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. यह पितृसत्तात्मक विचारों की देन है. इस याचिका ने एक बार फिर भारतीय समाज के सामाने शादी की उम्र का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया है. जी, यह कोई पहला मौका नहीं है.
भारत में शादी की उम्र काफ़ी अरसे से चर्चा में रही है. इसके पीछे सदियों से चली आ रही बाल विवाह की प्रथा को रोकने का ख्याल रहा है. ध्यान देने वाली बात है, इसके केन्द्र में हमेशा लड़की की ज़िंदगी ही रही है. उसी की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिहाज़ से ही उम्र का मसला सवा सौ साल से बार-बार उठता रहा है.
साल 1884 में औपनिवेशिक भारत में डॉक्टर रुख्माबाई के केस और 1889 में फुलमोनी दासी की मौत के बाद यह मामला पहली बार ज़ोरदार तरीके से बहस के केन्द्र में आया. रुख्माबाई ने बचपन की शादी को मानने से इनकार कर दिया था जबकि 11 साल की फुलमोनी की मौत 35 साल के पति के जबरिया यौन सम्बंध बनाने यानी बलात्कार की वजह से हो गयी थी.
फुलमोनी के पति को हत्या की सजा तो मिली लेकिन वह बलात्कार के आरोप से मुक्त हो गया. तब बाल विवाह की समस्या से निपटने के लिए ब्रितानी सरकार ने 1891 में सहमति की उम्र का क़ानून बनाया. इसके मुताबिक यौन सम्बंध के लिए सहमति की उम्र 12 साल तय की गयी. इसके लिए बेहरामजी मालाबारी जैसे कई समाज सुधारकों ने अभियान चलाया.
द नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) की रिपोर्ट चाइल्ड मैरेज इन इंडिया के मुताबिक, इसी तरह मैसूर राज्य ने 1894 में एक कानून बनाया. इसके बाद आठ साल से कम उम्र की लड़की की शादी पर रोक लगी.
इंदौर रियासत ने 1918 में लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 14 और लड़कियों के लिए 12 साल तय की. मगर एक पुख्ता क़ानून की मुहिम चलती रही. 1927 में राय साहेब हरबिलास सारदा ने बाल विवाह रोकने का विधेयक पेश किया और इसमें लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था. 1929 में यह क़ानून बना. इसे ही सारदा एक्ट के नाम से भी जाना जाता है.
इस कानून में 1978 में संशोधन हुआ. इसके बाद लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम क़ानूनी उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल हो गयी. मगर कम उम्र की शादियां रुकी नहीं. तब साल 2006 में इसकी जगह बाल विवाह रोकने का नया क़ानून आया. इस कानून ने बाल विवाह को संज्ञेय जुर्म बनाया.
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